
दुनिया जब हथियारों की गूंज में इंसानियत की चीखें भूल चुकी है, उसी वक्त वेटिकन से पोप लियो ने एक ऐसी अपील की है जो दिल और अंतरात्मा दोनों को झकझोर देती है।
अपनी पहली आम सभा में, पोप लियो ने ग़ज़ा में बिगड़ती मानवीय स्थिति पर गहरी चिंता जताते हुए कहा:
“ग़ज़ा पट्टी की स्थिति दिन-ब-दिन अधिक चिंताजनक और पीड़ादायक होती जा रही है।”
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पोप लियो की पुकार: “मानवीय सहायता रोकी न जाए”
पोप लियो ने अपने संबोधन में आक्रोश और करुणा के बीच संतुलन रखते हुए, अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील की:
“मैं अपील करता हूँ कि मानवीय सहायता को ग़ज़ा के अंदर जाने की अनुमति दी जाए। वहाँ सबसे अधिक पीड़ा बुजुर्गों, बीमारों और बच्चों को हो रही है।”
यह वाक्य सिर्फ एक बयान नहीं था — यह एक सभ्य समाज के विवेक पर सीधा प्रहार था।
ग़ज़ा में मासूमियत पर हमला
जहां एक ओर दुनिया सुरक्षा परिषदों और राजनीतिक बयानबाज़ियों में उलझी है, वहीं ग़ज़ा में नौनिहाल भूख, डर और गोलियों के बीच साँस ले रहे हैं।
पोप लियो ने उन बच्चों की आवाज़ को मंच दिया, जिनकी चीखें बंद कमरों में दबा दी जाती हैं।
कैथोलिक चर्च की भूमिका: शांति की आवाज़
पोप का यह संदेश केवल ग़ज़ा तक सीमित नहीं है — यह दुनिया के हर उस कोने के लिए चेतावनी है जहाँ मानवता को राजनीतिक लक्ष्यों के नीचे कुचला जा रहा है।
कैथोलिक चर्च एक बार फिर शांति, करुणा और निस्वार्थ सेवा के पक्ष में खड़ा हुआ है।
क्या सुनेगा विश्व समुदाय?
यह पहली बार नहीं है जब किसी पोप ने संघर्ष क्षेत्र में मानवाधिकारों की अनदेखी पर आवाज़ उठाई है। लेकिन इस बार संदेश अधिक सीधा, अधिक मार्मिक और अधिक समयोचित है।
अगर वेटिकन की यह पुकार भी अनसुनी रह गई, तो सवाल सिर्फ ग़ज़ा का नहीं रहेगा – पूरी मानवता का होगा।
पोप लियो की वाणी वेटिकन से निकली ज़रूर, लेकिन यह एक वैश्विक अंतरात्मा की पुकार है। ग़ज़ा के भूखे बच्चे, अस्पतालों में तड़पते मरीज, और मलबों में खोई हज़ारों जिंदगियां अब सिर्फ आंकड़े नहीं — एक सदी की सबसे बड़ी नैतिक परीक्षा हैं।
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